प्रथम सर्ग:-
हर युग का पुरुष राम जग में
हर युग की नारी सीता है ,
मर्यादा पुरुषोत्तम राम हुये
करुणा की जननी सीता है ।
बदले युग या इतिहास यहांँ
बदली न भारत की सीता,
उसने सब कुछ हो मौन सहा
जो भी जग में उस पर बीता ।
हर युग में लेते आये हैं
यहां राम परीक्षा सीता की
स्वीकृति में सीता ने दी है
हर अग्नि परीक्षा राम की ।
विचलित जिसे कर सका नहीं
रावण सा लंकाधीश कभी
उस सीता पर विश्वास नहीं
क्यों ?अग्नि परीक्षा लेकर भी ।
सीता का था विश्वास अटल
जग टल जाये वह रहे अटल
चंचलता के पल भी टल कर
वह भी जैसे हो गये अचल ।
मन का विश्वास जहां टूटा
रिश्तों का छोर वहां छूटा
संयम का बंधा बांध टूटा
अवरोंधों का बंधन छूटा।
हर जगह खींच कर इक रेखा
जग ने उस रेखा को ही देखा
वह पार हुई जब भी रेखा
बन गई भाग्य की अभिलेखा।
तर्जनी का इंगित कर उठना
शंकाओं का मन में उठना
घनघोर घटाओं का घिरना
घर्षण में बिजली का गिरना।
सीता को त्याग दिया ऐसे
निर्जीव वस्तु हो वह जैसे
निर्जन वन छोड़ दिया ऐसे
वह मरे जिये चाहे भी जैसे ।
जीवन मूल्यों का ह्रास हुआ
अपनों का स्वयं विनाश हुआ
निर्बल जन को ही त्रास हुआ
नवनिर्मित फिर इतिहास हुआ।
शंकाओं के निर्मूल शूल
मानव जीवन के बने भूल
खिलने से पहले झरे फूल
आंचल बटोरते रहे धूल ।
नारी जीवन ही पीड़ा है
दु:ख-सुख की जिसमें क्रीड़ा है
मन को मसोस कर मीड़ा है
हँस कर सहती सब पीड़ा है ।
उसका अपना कोई रूप कहाँ
जीवन की छाँव धूप कहांँ
सिर ढकने की शीतल छाया
पुरुषों पर ही आश्रित काया ।
पति की छाया की प्रतिच्छाया
बन डोल रही उसकी काया
अपनों के बीच बनी माया
औरों के बीच बनी दाया ।
उसका अपना घर-द्वार कहाँ
कोई अपना अधिकार कहाँ
पति का था घर-द्वार जहाँ
वह छूट गया तो रहे कहाँ ।
आहत होता है जहां अहम
बन जाता है फिर वही वहम
अपवादों में घिर बना भरम
बन गया अंत में सत्य स्वयम्।
पतिधर्म दीक्षित दीक्षा सी
वह देती रही परीक्षा ही
हर युग की बनी वरीक्षा सी
सीता की अग्नि परीक्षा ही।
घातों मे भी प्रत्याघातों के
सब वार सहे आघातों के
आशा में पल विश्वासों के
नि:श्वास बने उच्छवासों के ।
इच्छित मन की इच्छा पर
रावण की मांगी भिक्षा पर
सीता की अग्नि परीक्षा पर
संदेह स्वयं परिवीक्षा पर।
इक व्यक्ति मात्र के कथन अरे
बन गये सत्य के ही रूप धरे
था, जो भी बुद्धि से दूर परे
सन्निकट हुआ बन वही खरे।
इक असंतोष की चिंगारी
दब कर बनती है अंगारी
दहकर सुलगे जब चिंगारी
शोलों में भड़के तब अंगारी।
सीता पर करके अविश्वास
‘श्री राम’ हो गये ‘श्री’विहीन
तोड़े जीवन के आस -श्वास
मछली को करके जल विहीन।
हे राम!तुम्हारा न्याय कहाँ
किसके पलड़े में सोया था
अन्याय तुला पर तौल जहाँ
तुमने अपना सुख खोया था।
राजा ही जब अन्याय करे
तब न्याय कौन कर सकता है
निर्णीत रूप निर्णय होकर
अभिव्यक्त स्वयं को करता है।
विधि के निर्णय पर तर्क नहीं
सम्पूर्ण विवेचन और कहीं
जिन पर हम करें विचार नहीं
उनके होते उपचार नहीं ।
जन अपने हों जनता के
राजा की प्रजा सभी होते
अधिकार सभी को समता के
दण्डित पर अपने जन होते ।
यह कैसी न्यायिक मीमांसा है
जिसमें बाधित जिज्ञासा है
अभिव्यक्ति व्यक्त की भाषा है
बन गया मौन परिभाषा है।
दुर्बल जन ही सब सहते हैं
दूभर जीवन को जीते हैं
जग के लांछन को सहते हैं
सब सह कर भी चुप रहते हैं।
शक्तिमान भुजदण्ड सदा
थामें शासन प्रमोद कर में
होता जग में आरूढ़ सदा
सिंहासन पर निर्णय करने ।
नत मस्तक हो जिनके आगे
सबने सेवा अवसर मांगे
सन्मुख उत्कोच धरे आगे
उपकृत प्राणों के सुख मांगे ।
जन की वाणी को दे आदर
उनको सम्मान दिया सादर
मर्यादा को स्थापित कर
श्रद्धेय बने सबके आगे ।
बांदा जिले से गरिमा श्रीवास्तव