शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता का वर्णन किया गया

श्री मार्कण्डेय जी बोलते हैं- राजन! तदनन्तर एक दिन महाराज शल शिकार खेलने के लिये जंगल के लिए गये। वहाँ उन्होंने एक हिंसक पशु को सामने पाकर रथ के द्वारा ही उस का पीछा किया और रथचालक से कहा की- ‘शीघ्र मुझे हिरन के निकट पहुँचाओं’। उनके ऐसा कहने पर रथ चालक बोला- ‘महाराज! आप इस पशु को पकड़ने का हठ न करें। यह आप की पकड़ में नहीं आ सकता। यदि आप के रथ में दोनों वाक्य घोड़े जुते होते, तब आप इसे पकड़ लेते।’ यह सुनकर राजा ने मंत्री से पूछा- ‘सारथे! बताओ, वाम्य घोड़े कौन हैं, अन्यथा मैं तुम्हें अभी जीवित मार डालूंगा।’ राजा के ऐसा कहने पर रथ चालक भय के मारे कांप उठा। उधर घोड़ों का परिचय देने पर उसे वामदेव ऋषि जी के शाप का भी डर था। अतः उसने राजा से कुछ नहीं बोला। तब राजा ने पुनः तलवार उठाकर कहा- ‘अरे! जल्दी बताओ, नही तो तुझे मैं अभी मार डालूंगा।’ तब उसने राजा के डर से परेशान होकर कहा- ‘महाराज! वामदेव ऋषि के पास दो घोड़े हैं जिन्हें ‘वाम्य’ कहते हैं। वे मन के समान वेगशाली हैं’। रथ चालक के ऐसा बोलने पर राजा ने उसे आज्ञा दी, चलो वामदेव के आश्रम पर पहुँचकर राजा ने उन महर्षि से कहा- ‘भगवन्! मेरे बाणों से घायल हुआ हिंसक पशु भागा निकला जा रहा हैं। आप अपने वाम्य घोड़े मुझे देने की कृपा करें।’

तब महर्षि जी ने कहा- ‘मैं तुम्हें वाम्य घोड़े दिये देता हूँ। परंतु जब तुम्हारा काम सिद्ध हो जाय, तो तब तुम शीघ्र ही ये दोनो घोड़े मुझे ही लौटा देना।’ राजा ने दोनों घोड़े पाकर ऋषि जी की आज्ञा ले कर वहाँ से प्रस्थान किया। वामी घोड़ो से जुते हुए रथ के द्वारा हिंसक पशु का पीछा करते हुए वे रथ चालक से बोले- मंत्री! ये दोनों घोड़ा रूपी रत्न ब्राह्मणों के पास रहने योग्य नहीं हैं।’ ऐसा कह कर राजा हिंसक पशु को साथ ले अपनी राजधानी को चल दिये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने उन दोनों घोड़ों को अन्तः पुर में बांध दिया। उधर वामदेव मुनि जी मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगे- ‘अहो! वह तरुण राजकुमार मेरे अच्छे घोड़ो को लेकर मौज कर रहा हैं, उन्हें लौटाने का नाम ही नहीं ले रहा हैं। यह तो बड़े ही दुःख की बात है!’। ‘मन-ही-मन चिंता करते हुए जब एक महीना पूरा हो गया, तब वे अपने शिष्य से बोले- ‘आत्रेय! जाकर राजा से बोलो कि यदि आप का काम पूरा हो गया हो तो गुरु जी के दोनों वाम्य घोड़े लौटा दीजिये।’ शिष्य ने जाकर राजा से यही बात दुहरायी। तब राजा ने उसे उत्तर देते हुए कहा की ‘यह सवारी राजाओं के योग्य हैं। ब्राह्मणों को ऐसे रत्न रखने का अधिकार नहीं हैं। भला, ब्राह्मणों को घोड़े लेकर क्या करना हैं? अब आप सकुशल पधारिये’। ‘शिष्य ने लौट कर ये सारी बातें उपाध्याय से कहीं। वह अप्रिय वचन सुनकर वामदेव जी मन-ही-मन क्रोध से आग बबूला हो उठे और स्वयं ही उस राजा के पास जाकर उन्हें घोड़े लौटा देने के लिये कहा। परंतु राजा ने वे घोड़े नहीं दिये’।

वामदेव मुनि की महत्ता का वर्णन
‘तब वामदेव ने कहा- राजन! मेरे वाक्य घोड़ों को अब मुझे लौटा दो। निश्चय ही उन घोड़ो द्वारा तुम्हारा असाध्य कार्य पूरा हो गया हैं। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी असत्य वादिता के कारण राजा वरुण तुम्हें अपने भयंकर पाशों से बांध ले। राजा बोले- वामदेव जी! ये दो अच्छे स्वभाव के सीखे-सिखाये हष्ट-पुष्ट बैल हैं, जो गाड़ी खींच सकते हैं, ये ही ब्राह्मणों के लिये उचित वाहन हो सकते हैं। अतः महर्षें! इन्हीं को गाड़ी में जोत कर आप जहाँ चाहें जायं। आप-जैसे महात्मा का भार तो वेद-मंत्र ही वहन करते हैं। वामदेव जी ने बोला- राजन! इसमें संदेह नहीं कि हम-जैसे लोगों के लिये वेद के मंत्र ही वाहन का काम देते हैं। परंतु वे परलोक में ही उपलब्ध होते हैं। इस लोक में तो हम-जैसे लोगों के तथा दूसरों के लिये भी ये घोड़ा ही वाहन होते हैं। राजा ने कहा-ब्रह्मन्! तब चार गधे, अच्छी जाति की खच्चरियां या वायु के समान वेगशाली दूसरे घोड़े आपकी सवारी के लिये प्रस्तुत हो सकते हैं। इन्हीं वाहनों द्वारा आप घूमा करें। यह वाहन, जिसे आप मांगने आये हैं, क्षत्रिय नरेश के ही योग्य हैं। इसलिये आप यह समझ लें कि ये वाम्य घोड़े मेरे ही हैं, आप के नहीं हैं। वामदेव जी बोले- राजन! तुम ब्राह्मणों के इस धन को हड़प कर जो अपने उपयोग में लाना चाहते हो, यह बड़ा भयंकर कर्म कहा गया हैं। यदि मेरे घोड़े वापस न दोगे तो मेरी आज्ञा पाकर विकराल रूपधारी तथा लौह-शरीर वाले अत्यन्त भयंकर चार बड़े-बड़े राक्षस हाथों में तीखे त्रिशूल लिये तुम्हारे वध की इच्छा से टूट पड़ेंगे और तुम्हारे शरीर के चार टुकड़े करके उठा ले जायंगे।

राजा ने कहा- वामदेव जी! आप ब्राह्मण हैं तो भी मन, वाणी एवं क्रिया द्वारा मुझे मारने को उद्यत हैं, इसका पता हमारे जिन सेवकों को चल गया हैं, वे मेरी आज्ञा पाते ही हाथों में तीखे त्रिशूल तथा तलवार लेकर विद्यार्थीओ सहित आपको पहले ही यहाँ मार गिरावेंगे। वामदेव जी बोले-राजन! तुमने जब ये मेरे दोनों घोड़े लिये थे, उस समय यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं इन्हें पुनः लौटा दूंगा। ऐसी दशा में यदि आपने आप को तुम जीवित रखना चाहते हो, तो मेरे दोनों वाम्य संज्ञक घोड़े वापस दे दो। राजा बोले- ब्रह्मन![2]ब्राह्मणों के लिये शिकार खेलने की विधि नहीं हैं। यद्यपि आप मिथ्यावादी हैं, तो भी मैं आपको दण्ड नहीं दूंगा और आज से आप के सारे आदेशों का पालन करूंगा, जिससे मुझे पुण्यलोक की प्राप्ति हो[3]। वामदेवने जी कहा- राजन! मन, वाणी अथवा क्रिया द्वारा कोई भी अनुशासन या दण्ड ब्राह्मणों पर लागू नहीं हो सकता। जो इस प्रकार जान कर कष्ट सहनपूर्वक ब्राह्मण की सेवा करता हैं; वह उस ब्राह्मण-सेवारूप कर्म से ही श्रेष्ठ होता और जीवित रहता हैं।

मार्कण्डेय जी कहते हैं- राजन! वामदेव जी की यह बात पूर्ण होते ही विकराल रूपधारी चार राक्षस वहाँ प्रकट हो गये। उनके हाथ में त्रिशूल थे। जब वे राजा पर चोट करने लगे, तब राजा ने उच्च स्वर से यह बात कही- ‘यदि ये इक्ष्वाकुवंश के लोग तथा मेरे आज्ञा पालक प्रजावर्ग के मनुष्य भी त्याग कर दें, तो भी मैं वामदेव जी के इन वाम्य संज्ञक घोड़ो को कदापि नहीं दूंगा; क्योंकि इनके-जैसे लोग धर्मात्मा नहीं होते हैं’। ऐसा कहते ही राजा शल उन राक्षसों से मारे जाकर तुरंत धराशायी हो गये। इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियों को जब यह मालूम हुआ कि राजा मार गिराये गये, तब उन्होंने उनके छोटे भाई दल का राज्याभिषेक कर दिया। तब पुनः उस राज्य में जाकर विप्रवर वाम देव ने राजा दल से यह बात कही- ‘महाराज! ब्राह्मणों की वस्तु उन्हें दे दी जाय, यह बात सभी धर्मों में देखी गयी हैं।

राजा दल के चरित्र का वर्णन
‘नरेन्द्र! यदि तुम अधर्मसे डरते हो तो मुझे अभी शीघ्रतापूर्वक मेरे वाम्य घोड़ों को लौटा दो।’ वामदेव जी की यह बात सुनकर राजा ने रोषपूर्वक अपने रथ चालक से कहा- मंत्री! एक अद्भुत बाण ले आओ, जो विषय में बुझकर रखा गया हो। जिससे घायल होकर यह वामदेव धरती पर लोट जाय। इसे कुत्ते नोच-नोचकर खायं और यह पृथ्वी पर पड़ा-पड़ा पीड़ा से छटपटाता रहे’। वामदेव जी ने कहा-नरेन्द्र! मैं जानता हूं, की तुम्हारी रानी के गर्भ से श्येनजित नामक एक पुत्र पैदा हुआ हैं, जो तुम्हें बहुत प्रिय है और जिसकी अवस्था दस साल की हो गयी है। तुम मेरी आज्ञा से प्रेरित होकर इन भयंकर बाणों द्वारा अपनी उसी पुत्र का शीघ्र वध करोंगे।

मार्कण्डेय जी कहते हैं- राजन! वामदेवके जी ऐसा कहते ही उस प्रचण्ड तेजस्वी बाण ने धनुष से छूटकर रनवास के भीतर जा राजकुमार का वध कर डाला। यह समाचार सुनकर दल ने वहाँ पुनः इस प्रकार कहा। राजा ने कहा- इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियो! मैं अभी तुम्हारा प्रिय करता हूँ। आज इस ब्राह्मण को रौंद कर मार डालूंगा। एक दूसरा तेजस्वी बाण ले आओ और आज मेरा पराक्रम देखो। वामदेव जी ने कहा- नरेश्वर! तुम विष के बुझाये हुए इस विकराल बाण को मुझे मारने के लिये धनुष पर चढ़ा रहे हो, परंतु कहे देता हूँ ‘इस बाण को न तो तुम धनुष पर रख सकोगे और न छोड़ ही सकोगे’। राजा बोले- इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियो! देखो, मैं फंस गया। अब यह बाण नहीं छोड़ सकूंगा। इसलिये वामदेव जी को नष्ट करने का उत्साह जाता रहा। अतः यह महर्षि दीर्घायु होकर जीवित रहे। वामदेव जी ने कहा-राजन! तुम इस बाण से अपनी रानी का स्पर्श कर लेने पर ब्रह्महत्या के पाप से छूट जाओगे। तब राजा ने ऐसा ही किया। तदनन्तर राजपुत् रीने मुनि से कहा। राजपुत्री बोली- वामदेव जी! मैं इन कठोर स्वभाव वाले अपने स्वामी को प्रतिदिन सावधन रहकर मीठे वचन बोलने की सलाह देती रहती हूँ और स्वयं ब्राह्मणों की सेवा का अवसर ढूंढ़ती हूँ। ब्रह्मन! इन सत्कर्मों के कारण मुझे पुण्यलोक की प्राप्ति हो। वामदेव जी ने कहा- शुभ दृष्टिवाली अनिन्द्य राजकुमारी! तुमने इस राजकुल को ब्राह्मण के क्रोप से बचा लिया। इस के लिये कोई अनुपम वर मांगो। मैं तुम्हें अवश्य दूंगा। तुम इन स्वजनों के हृदय और विशाल इक्ष्वाकु राज्य पर शासन करो।राजकुमारी बोली- भगवन! में यही चाहती हूँ कि मेरे ये पति आज सब पापों से छुटकारा पा जाएँ। आप ये आशीर्वाद दें कि ये पुत्र और बन्धु-बान्धवों सहित सुख से रहें। विप्रवर! मैंने आप से यही वर माँगा है।

मार्कण्डेय जी कहते हैं- कुरु कुल के प्रमुख वीर युधिष्ठिर! राज पुत्री की यह बात सुनकर वामदेव मुनि ने कहा- ‘ऐसा ही होगा।’ तब राजा दल बड़े प्रसन्न हुए और महर्षि को प्रणाम करके वे दोनों वाम्य घोड़े उन्हें लौटा दिये।

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